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स्यानित्य स्वभाववंत छो, स्यात्अनित्य स्वभाव. वंत छो, स्यात्भव्य स्वभाववंत छो, स्यात्प्रभव्य स्वभाववंत छो, विगेरे अनंत स्यावाद धर्मयुक्त श्राप सदाकाल विद्यमान छो, तथा हे भगवंत ! आप निरंतर अप्रमादभावमां वर्लो छो, क्षणमात्र पण पोताना शुद्धास्मधमथी च्युत तथी नथो, कारण के प्रमादना हेतु जे निद्रा विकथा विषय कषाय मद स्नेह विगेरे छे तेनो श्रापे सर्वथा नाश करेलो
तेथी हे परमेश्वर ! आप परमात्म पदने संपूर्ण पणे प्राप्त थया छो. एवा श्राप परमात्मानुं साची रीते दर्शन थतां माहरी अनादीकालनी अनात्मामां आत्मपणानी भ्रांतिनो नाश थयो ॥६॥ जिन लम जिन सम सत्ता ओलखी हो जी, तसु प्रागभावनी ईह ॥ अंतर अंतर आतमता लही हो जी, पर परिणति निरीह ।। नमि० ॥७॥
___अर्थ:-एम हे परमात्म प्रभु ! केवलज्ञान केवलदर्शनादि अनंत शुद्धधमयुक्त श्राप स्वजातिनुं यथार्थ रीते दर्शन थतां में माहरी सत्ताने आप समान