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महोदधि अर्थात् महान् समुद्रनी पेठे अखूट निधान थया छो, तेमज सामान्य सत्ता अवलोकन रुप केवलदर्शनना तथा कोइ पण काले जरा पण हीय क्षीण न थाय एवं सहज आत्मीय अनंत वीये प्रगट कयु प्राप्त कयु तथा क्रोधादिक सर्वे कषायोनो अत्यंत अभाव करी दायक चरित्र प्राप्त कर्यु - प्रगट कर्यु, अनंत आत्मीय परमांनंदना भोक्ता थया ||५|| विश्रामी विश्रामी निज भावना हो जी, स्यादद्वादी अप्रमाद । परमातम परमातम प्रभु देखतां हो जी, भागी भ्रांति अनादि || नमि० ॥ ६ ॥
अर्थः तथा हे दयानिधान ! आप सर्वे परद्रच्योना गुण पर्यायोमांथी रमण तथा आराम विनामनो स्याग करी पोताना केवलज्ञानादि शुद्ध स्वभावमां रमण करनारा स्थिरतापणे बिराजमान
छो वली हे भगवंत ! आप स्याद्वाद धर्मयुक्त सदा को अर्थात् स्यात्यस्ति स्वभाववंत छो, स्यात्नास्ति स्वभाववंत छो स्यात्एक स्वभाववत छो, स्यात्अनेक स्वभाववंत छो, स्यात्वक्तव्य स्वभाववंत छो, स्याद् अवक्तव्य स्वभाववंत छो,