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क्रिया सुपसायरे, भवि ॥ अमृत क्रिया अनुष्टानथीगे, मन । आतम अकृत थायरे । भवि ० ॥ २॥ ___अर्थ :- जिनेश्वरना ज्ञानादि शुद्ध गुणोनुं सेवन बहुमानरूप अमृतनुं पान करवाथी अमृत क्रिया ( अमृतानुष्टान ) नी प्राप्ति थाय, अने अमृतानुष्ठान वडे सकल मोहनो क्षय थई आत्मा अजर अनर अविनश्वर शुद्ध सिद्धपदने प्राप्त थाय, श्रने अन्य जीवोने अमृत समान भव रोगथी मुक्त करवानो हेतु थाय, अनुष्टान पांच प्रकारनां छे-- विषानुष्टान, गरलानुष्टान, अनानुष्टान तद्धेतु अनुष्ठान, अने अमृतानुष्टान. विषानुष्टान-आहारोपधि पूर्छि, प्रभृत्याशंसया कृतं, शीघ्र सच्चित्तहन्तृत्वा द्विषानुष्टान मुच्यते ।। अध्यात्मसार पा. ४५६ ।। ___ अर्थः-मिष्टान्न भोजननी लालचे, वस्त्रादिक उपकरणनी लाल चे, पूजानी लालचे, रिद्धिनी लालचे जे तप जपादि क्रिया करे ते क्रिया चित्त शुद्धिनी हणनारी के मेथी ते विषानुष्टान कहेवाय छे, भा भवमा पौद्गलीक भोगोनी प्राप्ति थवानी