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________________ १३४ पाय छे, तेमज हे प्रभु ! आपपण संसार जन्य सकल क्लेशथी भव्य जीवोने मुक्त करवामां वि. नास्वार्थे सहजे मददकारी थाउ छो ए आपनी परम सजनला सुचवे के. देवचंद्रमुनि कहे छे के हे प्रभु! श्राप नि:प्रयासिक अन निरुपचरित सुखना करवा. वाला तथा ज्ञानादि अनंत गुणना गेह-निधान छो; तथा परिवार सहित मोहगजानो समूल ध्वंस करी नांख्यो छे तेथी अमोही, तथा अमाय कहेतां कपट रहित शुद्ध स्वरूपना प्रकाशक छो. ॥८॥ ॥संपूर्ण ॥ . Rococcoove ॥ अथ एकादशम श्री वजंधर जिन स्तवन ॥ ॥ नदी यमुना के तोर ॥ ए देशी ॥ विहरमान भगवान् सुणो मुज विनती, जगतारक जगनाथ अछो त्रिभुवन पति; भासक लोकालोक तिणे जाणो छती, तो पण वीतक बात कहुं छु तुज प्रात ॥ १ ॥ अर्थः-महा विदेहमां विधाता, भव्यसमूहने भवाब्धिथी उद्धारनार, सर्वे प्राणीमोना हितचिंतक
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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