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________________ ___ १३३ · चंदरे ॥ मोचक सर्व विभावथी, झीपावे. मोह अरींदरे ॥ झी० ॥ अरि० ॥ ७॥ __ अर्थः-सत्तागते रहेला अनंत अात्मधर्मोने संपूर्ण शुद्ध प्रगट करवामां 'अर्थात् श्रा ससार समुद्रथी पारंगत थइ मोक्ष अवस्था प्राप्त करवामां हे विशालप्रभु अरिहंत ! आप पुष्टकारण-अनंतर कारण छो. उक्तंच-सिद्धसेन पूज्यैः " पुष्ट हेतुजिनेंद्रोयं मोक्ष सद्भाव साधने ” तेथी सर्वे मुनिउं-ज्ञानीउमां चंद्रमा समान प्रधान लोकालोकना ज्ञायक आपज श्रा भयंकर भवसमुद्रमांथी तारनार छो; नथा राग द्वेष मोह विगेरे सर्वे विभा. वथी मुक्त करवावाला तथा सर्वे शत्रुउंमा श्रेष्ठ अत्यंत बलवान् मोह शत्री जीताववावाला छो. ॥ ७॥ • कामकुंभ सुरमणि परे, सहजे उपगारी थाय रे । देवचंद्र सुखकर प्रभु, गुण गेह अमोह अमायरे ॥ गुण ॥ अरि० ॥ ८ ॥ . अथे:-जेम कामकुंभ तथा चिंतामणी रत्न, बिनास्वार्थे अन्य जीवोने वांछित फलना दातार
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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