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________________ १३२ वर्तनार जे श्रमण समूह तेनी आप रक्षा करनार छो; कारण के मोक्ष मार्गमां विघ्न करनार मिथ्यात्व कषाय आदि चोर लुंटाराउने बरोवर उलखावनार तथा तेउं विघ्न नहि करी शके एवा उपायो बताबनार तथा आगेवान थइ पोताना अत्यंत बल वीर्य वडे ते उंने निर्विघ्नपणे मोक्ष नगरे पहोंचाडनार होवाथी हे परमेश्वर ! आपज अद्वितीय गोप तथा ईश्वर छो. ॥५॥ भाव अहिंसक पूर्णता, माहणता उपदेश, रे ॥ धर्म अहिंसक नीपन्यो, माहण जगदीश विशेषरे ॥ माहण० ॥ अरि०॥६॥ ___अर्थ:-हे जगदीश्वर ! आपना सर्वे ज्ञानदर्शनादि भावो पूर्ण अहिंसकपणे वतै छे तथा संसारी जीवोने पण स्वपर जीवना द्रव्य भाव प्राण न हणवा एवो उपदेश आपो छो तथा कोइपण जीवना द्रव्य भाव प्राणनी हिंसाना कर्ता न धाय एवा - केवलज्ञान केवलदर्शनादि अनंत धर्मो संपूर्ण शुद्ध प्रगट-व्यक्त थया छे. तेथी अाप अद्वितीय माहणअहिसक पदवीना धारक छो. ॥ ६॥ पुष्ट कारण अरिहंतजी, तारक ज्ञायक मुनि
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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