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________________ १३५ तथा रक्षा करनार, त्रिलोक पूज्य, त्रिलोक स्वामी हे श्री वज्रधर भगवंत ! अापने जीवाजीवादिक कोई पण पदार्थ उपर रंचमात्र पण राग, द्वेष, मोह वा ममस्व परिणाम नथी, तेथी कोईपण द्रव्य मापना सहजे परिणमता ज्ञान प्रकाशने व्याघात करी शके तेम नथी, तेथी भाप कीईपण द्रव्य, कोईपण क्षेत्र, कोई पण काल वा कोईपण भावमा स्खलना नहि पामतां स्वक्षेत्रे स्थिर रही सकल लोकालोकना त्रैकालिक भावने हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष समकाले जाणो छो. यद्युक्तं-महा भाष्ये, " सर्व द्रव्य गतान् सर्वानपि पर्यायान् केवलंज्ञानं जानाति" तथा तत्वार्थ सूत्रे,-" सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य” तोपण हुँ मोहवशे अजाण होवाथी अविवेकी तथा अधीर थई में चार गतिरूप घोर भवाटवीमा भमता जे जे दुराचरण तथा दुःख क्लेशादि सेव्या ते सर्वे अापने अशरण शरण विलोकी आप प्रति सनमृता निवेदन करुंछु ते करुणा पूर्वक सांभलशो, लक्षमा लेशो. ॥ १ ॥ हुं स्वरूप निज छोडी रम्यो पर पुद्गले, लील्यो ऊलट आणी विषय तृष्णा जले;
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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