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________________ १३६ आस्रव बंध विभाव करूं रुचि आपणी, भूल्यो मिथ्यावास दोष यूं परभणी ॥ २॥ अर्थः-अचल, अबाधित, निरुपाधि, स्वतंत्र अने सहज परमानंदमय मारा श्रात्मस्वरूपने अनादि अज्ञानवशे नहि जाणतां सहज प्रास्मीय परमानंदलो वियोगी रही मारा आत्म द्रव्यथी पर, क्षणभंगुर, तथा अचेतन , जे पुद्गल द्रव्य तेषां सदा श्रासक्त-लीन रह्यो तथा जे पौद्गलीक विषयोशार्दूल विक्रीडित वृत्तम्-" भुजंतामहरा विवाग विरला, किंवाग तुल्ला इमे । कच्छकडु अगंव दुःख जणया, दाविति बुद्धिं सुहे ।। मष्भण्हे मय तिारोहअव्य सययं, मिच्छाभिसंधिप्पया भुत्ता दिति कुजम्म जोणे गहणं, भोगा महा वेरिणो” अज्ञानवशे भोगवतां मधुर-प्रिय लागे छे पण विपाक काले किंपाकफलनी पेठे विरस, प्राणघातक छे, तथा जेम खसने खणतां शांति थती नथी पण उलटी चेल वधे छे, तेम विषयो भोगवतां शांति-तृप्ति थती नथी पण उलटी तृष्णा वधे छे तेथी परिणामे दुःखवर्धक छे, तथा ते विषयो
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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