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१३० मां लीन थतां मृगतृष्णानी पेठे निरंतर दुष्ट अभिप्रायो उपजे छे तथा ते भोगव्याथी अनेक प्रकारे कर्मबंध थवाथी नरकादि दुःखदायक कुगति, कुयो। निनी प्राप्ति थाथ छे तथा गाथा-विषय रसासव मत्तौ, जुत्ताजुत्तं न जाणई जीवो ।। झूरइ कलुणं पच्छा, पत्तो नरय महाघोरं ॥ जह निंब दुम्म पत्तो, कीडो कडुअंपि मन्नहे महुरं। तह सिद्धि सुह परूरका, संसार दुहं सुहं बिंति ॥" विषय रस रूप मदिरामा मदोन्मत्त थतां योग्य अयोग्यनु-हेयादेयन भान नष्ट थाय छे. अने तेथी ज्यारे महा दुःखमय घोर भयंकर नरकादि गतिनी प्राप्ति थाय छे स्यारे अतिशय पश्चाताप भोगवंधो पडे छे. जेम लींबडामां वसतो कीडो लीबडाना कटुक रसने पण मधुर मानी से। छे, तेमज मिथ्यादृष्टी वडे मोक्ष सुखथी परोक्ष-विपरीत जे विषय भोग वास्तविक रीते दुःख के तेने सुख मानी सेवे छे तथा जे जलना प्रवाह तथा विजलीना चमत्कारनी पेठे क्षणीक छे तेथी अवश्य - जेनो वियोग थवानो छे एवा महान् शत्रुरूप पुदगल विषयोनी तृष्णारूप जलमां हुं सदा हर्षे पूर्वक