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कोडाकरतो निमग्न रह्यो तेथी अात्म स्वरूपने भुली शुद्धात्म स्वरूपथी परांङ्गमुख थई अत्यंत दुःखदायक भवसमुद्रमा भ्रमण करावनार ज्ञानावरणीयादि कर्मना आस्रव (पांच प्रकारना मिथ्यात्व, बार प्रकारनी अविरती, पचीस कषाय तथा पंदर योग) तथा प्रकृति, स्थिती, अनुभाग अने प्रदेशबंधना हेतु राग वेष मोहादि विभाव तरफ में रुचि करी तथा मिथ्यावासमां अर्थात् मिथ्यास्व गुणस्थाने वसतां मिथ्यात्वना आवेशमां सम्यक्दर्शन, सम्यक्. ज्ञान, सम्यक्चारित्रमय प्रास्म स्वरूपने भूली अ. नेक प्रकारनां कम वांधी तेना दुष्ट फलनो भागी थयो अने ते दुष्ट विपाकना अवसरे माहरा पूर्वकृत कर्मनो दोष न विचार्यो, अने “ सव्वे पुव कयाणं, कम्माणं पावए फल विवागं । अवराहेसु गुणेसु अ, निमित्त मित्तं परो होइ” आ अमूल्य जिनवचननुं विस्मरण करी अमुके मने क्रोध उपजाव्यो, मानमां पाड्यो, माया तथा लोभमां प्रवृत्त कर्यो तथा शोक, भय, अरति, जुगुप्सा -विगेरे कषायो उपजाव्या एम कही परने दोष दीधो. श्वान जेम लाकडी मारनारने नहीं पण लाकडीने करडवा तथा भसवा मांडे छे तेम में पण मारा