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१३५ पूर्वकृत दुष्ट कर्म तरफ लक्षा नहि देतां निमित्तमात्र जे परद्रव्य तेने दोष दीधो भने हाल पण तेमज धत्तुर्छ "जो कत्ता सो भोत्ता,” एवा जगजाहेर तथा सर्वमान्य जिनेश्वरना वचननो निरादर कर्यो, ॥२॥
अवगुण ढांकण काज करूं जिन मत क्रिया, न तर्जु अवगुण चाल अनादिनी जे प्रियाः दृष्टि रागनो पोष तेह समकीत गणुं, स्यादवादनी रीत न देखुं निजपणुं ॥ ३ ॥
अर्थः-अनादिथी अज्ञान वशे प्रिय थइ पडेली, कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मने सन्मानवा श्रादरवा रूप मिथ्यात्व अज्ञाननी तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा तथा घेदराग विगेरेनी दुष्ट चाल प्रकृतिनो तो त्याग करयो नहि अने कदाच श्री जिनेश्वरे बतावेली सामायिक, पोसह, प्रतिक्रमण, वंदन, स्तवन, पूजा विगेरे क्रियानो, अपमान निंदा तथा दुराचरण ढांकवा माटे, आलोक परलोकना विषयभोगनी प्राकांक्षा, सहिन, तथा माया मिथ्यात्व अने निदानशल्य सहित आदी. "वैराग्यं रंगो पर वंच