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थाये योगस्थान स्वरूपरे । मन० ॥३॥ सुहम निगोदी जीवथी, जाव सन्नीवर पझात्तरे । योगनां ठाण असंख्य छ, तरतम मोहे परायत्तरे ॥ मन० ॥४॥ - अथः-सर्वे छद्मस्थ जीवोनुं आस्म वीर्य क्षयोपशम. भावे सदा होय पण सर्वथा भावृत्त थाय नहिं. जो सर्वथा भावृत्त होय तो चेतनतानो समूल प्रभाव थाय तेथी छमस्थ जीयोनो पण वीर्य गुण क्षयोपशम भावे होयज अर्थात् छद्मस्थ जायोने पण वीर्यातरायनो सदा क्षयोपशम होय अने वीर्यातरायना क्षयोपशम वडे छद्मस्थ जीवोने अल्पवीर्यनी प्रगटता होय छ भने ते अल्पयोर्यनी प्रगटताना कारणथी रत्नन्नयनी मलिनताने योगे पोताना कर्तृत्त्व स्वभावने लीधे कर्म ( क्रिया) रंगे आस्म प्रदेश चलायमान करे के एटले " आत्म प्रदेश परिस्पदो योगः" ए सूत्र प्रमाणे योगी पान के पदयुक्तला उत्पनीरय लेश्या सगे, आभलंधिज मति गरे। सूक्ष्म शूल-क्रिया