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व्यवस्थितिमिति प्रावलोक यन्तः ॥ यादवाद शुद्धि मधिका माधगन्य सन्तो, ज्ञानी भवन्ति जिन लीनि मलन्धयन्तः ” भावार्थसर्व वस्तु सहज अनेकांतात्मक छ माटे जिनेश्वरना म्याद्वाद न्याय न हि उलंघन करतां वस्तु तत्त्वनी अनेकांतास्मक व्यवस्था सन्मुख दृष्टि राखी स्याद्वादनि अधिक शुद्धिने अंगीकार करी सत्पुरुषो ज्ञानी बने छे-ज्ञानपद धारण करे छे. ॥ ५ ॥ प्रभु शक्ति व्यक्ति एक भाव, गुण सर्वरह्या समभावेरे ॥ मन०॥ माहरे सत्ता प्रभु सरखी, जिन वचन पसाये परखीरे ।। मन० ॥ ७॥
अर्थ:-हे त्रिलोकपूज्य प्रभु ! प्रापनी ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि सर्व शक्तिउं व्यक्त अर्थात् निरावरण थई छ, अवाधित पणे पोताना शुद्ध कायें परिण में छे, श्रागामी अनंतकाल सुधी एमज परिणमवाने शक्तिमान छे, कोइ पण काले क्षीणता पामे नेम नथी कारण के द्रव्यमा सामर्थ्य पर्याय तथा छती पर्याय अनंत छे माटे आफ्नी