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दूरवर्तीथई अनेक प्रकारना शोक दुःख उपजावनार, नेना काल प्रमाणे वर्तनार, सदा अतृप्त राखनार, जेनो भोग किंपाकफलनी पेठे प्राण घानक, एवी जे पुद्गल परिणति (पौदगलीक विषयो। तेमां हुँ भोग सुख मानी मग्न, तल्लीन थई रह्यो, माहरी कत्तृत्त्व, भोक्तृत्व ग्राहकत्व, व्यापकत्व, दान लाभ, भोग, उपभोग आदि परिणतिने तद्गत करी संसार परिपाटीने वधारी उक्तंच- “जो
अपसथ्थोरागो, वढ्इ संसार भमण परिवाड़ी। विसयाइसु सयणाइसु, इतृत्तं पुग्गलाइसु ॥", माहरी अनुपम अखूट ज्ञानादिक संपदाथी वियोगी रह्यो पण हे भगवंत ! आप तो श्रास्म संपदाना भोगमा अंतराय करनार फर्मशत्रुनो सम्यक्चारित्र वडे समूल नाश करी अनंतज्ञाम, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग अनंतउपभोग आदि स्वसंपदानो लाभ मेलवी स्वाधीन करी निरंतर निष्कंटक पणे ज्ञानादि अनंत भचल निरुपचरित अनुसार प्रात्म संपदानों भोगमा अत्यंत मग्न थया छो.तेथी हे प्रभु ! आपनेज माहरा स्वामी जाणुं : छु, प्रापथीज माहरो मनोर्थ परिपूर्ण थशे. आपनाज दर्शनथी मारी