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वनाव्या-कारणके जिनेश्वरनी भक्ति तेज मुक्तिनो मार्ग छे तथा तेज अनुपम अव्यावाध स्वाभाविक शिवसुखनु मूल छ ॥ ४॥
खरतर गछ जिनचंद सूरिवर, पुण्यप्रधान मुर्णिदो ॥ सुमतिसागर साधुरंग सु वाचक, पीधो श्रुत मकरंदोरे ॥ जिन० ॥५॥
अर्थ:-हवे स्तवन कर्ता श्री देवचंद्र मुनि पोतानी परंपरा वखाणे छे, जेणे जिनप्रणीत सूत्रनो शुद्ध प्रास्वादन लीधो छ एवा खरतर गछमां श्री जिनचंद्र सूरि भट्टारक नामे प्रधान प्राचार्य थया, तेरो श्रीना शिष्य 'प्रधान पुण्यवान मुनिशिरोमणि श्री पुण्यप्रधान नामे महोपाध्याय थया, तेश्रोना शिष्य सुमतिना समुद्र जेवा श्री सुमतिसागर नामे उपाध्याय थया, तेउना शिष्य मुनिपणामां जेने रंग लाग्यो छे एवा साधुरंग वाचक थया ॥ ५ ॥
राजसार पाठक उपकारी, ज्ञानधर्म दिणदो ॥ दीपचंद सद्गुरु गुणवंता, पाठक धीरगयंदोरे ॥ जिन० ॥६॥