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मात्र पण प्रवेश-प्रचार थई शके तेम नथी अने तेथी श्रापमा भावहिंसानों बिलकुल अभाव छे तेथी श्राप निर्विवाद पणे भावदयाना भंडार छो॥ ५ ॥
गुण गुण परिणति परिणमे, बाधक भाव विहीन ॥ प्रभु०॥ द्रव्य प्रसंगी अन्यनो, शुद्ध अहिंक पीन ॥ प्रभुजी॥ बा०॥६॥ ' अर्थ-आपनो आत्म द्रव्य ज्ञान दर्शन चारित्र दान लाभ भोग उपभोगादि अनंत गुणनो पिंड छ (दव्वं गुण (समुदाओ) ते सर्वे गुणो वाधकभाव रहित पोताना शुद्ध परिणामे परिणमे के कारण के "सव सपज्जवा गुणा, अपज्जबे जाणणा नच्छि” पण ते गुणो जो वाधकभावे एटले ज्ञान अज्ञानपणे, दर्शन प्रदर्शनपणे, चारित्र मिथ्याचरण रूप एम परिणमे तो प्रात्म स्वगुणनो रोध करे-शुभाशुभ कर्मबंध करे-श्रात्मीक सहज अबाधित सुखनी हाणी करे " (सायासाय दुःखं, तविरहमि य सुहं जउत्तेण । देहिं. दियेसु दुःस्कं, सुख्खं दहिदिया भावो)"