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________________ १ अविनाशी, अनंत, अज, अलेशी, अवेदी, अकषायी अचल, अक्रिय, नित्य, स्वाधीन, निबंध, परमानंद दशाने प्राप्त थया छो. भने जे रीते श्राप ए दशाने प्राप्त थया तेज उपाय, तेज धर्म, परम करूणा चडे भव्य जीयोने आ संसार समुद्र-मांथी पारंगत-थई शिवभूमीए पहोंचवा प्ररूप्यों-उपदेश्यो छे. ते सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप धम श्रादरतां-सेषता भव्य जीवो द्रव्यकर्म, भावकम अने नोकम ए प्रण प्रकारना कर्मनो नाश करी परम पवित्र शुद्ध निरावरण थाय. ॥७॥ नाम धरम हो ठवण धरम तथा, द्रव्य क्षेत्रतिम काल ॥ भावधर्मना हो हेतु पणे भला, भाव विना सहु आल ॥ स्वामी० ॥८॥ • अर्थ:-नामधर्म, स्थापनाधर्म, द्रव्यधर्म, क्षेत्रधर्म, कालधर्म, तथा भावधर्म एम धर्म स्वरूप अनेक प्रकारे छे, पण नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र तथा काल 'ए जो भावधर्मना सन्मुख, भावधर्मना हेतु होय अर्थात् भावधर्म साधवामां कारणभूत होय तो प्रशंसनीय कार्यकारी छ पण जो ते भावधर्मनी अपेक्षा शून्य होय तो माल अर्थात् निरर्थक धुल
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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