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१२१ ___णविय फासो । णवि रूवं ण सरीरं, णकि
संठाणं ण संहाणं ॥" पण संसार- अवस्थामां जीव कर्मबंधयुक्त होवाथी शरीरादिमा अहंममस्य करी वने छे तेथी व्यवहार नये रूपी कहेवाय छे. जेम जे घडामां घृत भरेलु होय ते घीनो घडो कहेवाय पण वास्तविक रीते जोतां घडो काई घीनो नथी माटीनोज छ. यदयुक्तं "पझतापझतय,जे सुहुमा बायराय जे चेव । देहस्स जीव सणा, सुत्ते व्यवहारदो उत्ता ॥” पर्यास, अपर्याप्त, सूक्ष्म, पादर, एकेंद्रिय बेइंद्रिय विगेरे शरीरने जे जीव संज्ञा कही छे ते व्यवहार नयनी अपेक्षा जाणवी. कारण के चौदे जीचस्थान ते पुद्गल संगे छे, जीवनो मूल स्वभाव नथी. पण श्री सरस्वामी तो कर्मबंधधी-संसार अवस्थाथी सर्वथा मुक्त होवार्थी व्यवहार तथा निश्चय बने नये श्ररूपी अवस्था भोगवे छे तथा " परम आनंद अत्यंत सुख अनुभवी, तत्व तन्मय सदा चित्स्वरूपी" परम आनंद-सर्वोत्कृष्ट प्रानंद जेनुं आ ग्रिलोकमा कोई उपमान नथी एवा परमानंदने तथा जे सुखनो कोईकाले अंत नथी एवा सहज अकृत्रिम अनुप