SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मपंधनो. सर्वथा नाश होबाथी तथा गति, परिणामवडे तुंषींना द्रष्टांते अाठमी इशिप्रभारा पृथ्वी अर्थात् सिद्ध अवस्थामा विराजमान,थया ॥ ५ ॥ वर्ण रस · गंध : विनु फरस संस्थान विनु, योग तनु संग विनु जिन अरूपी । परम आनंद अत्यंत सुख अनुभवी, तत्त्व तन्मय • सदा चित्स्वरूपी ॥ सूर० ॥६॥ । अर्थ:-श्री सूरस्वामी सिद्ध अवस्थाने प्राप्त थया. ते सिद्ध स्वरूप केवु छे-पांच प्रकारना वर्ण, पांच प्रकारना रस, बे प्रकारनी गंध, पाठ प्रकारना स्पर्श, छ प्रकारनां संस्थान, व्रण प्रकारना योग, पांच प्रकारनां शरीर तथा अंतरंगे अने बाह्य ए बे प्रकारना परिग्रहथी रहित तथा राग द्वेषादि विभावधी पण रहित होवाथी सर्वे नये अरूपी अवस्थाने संप्राप्त छ । कारण के जीवन शुद्ध स्वरूप वर्णादि तथा रागादि भावथी रहित छे. यदयुक्तं-"तत्थ भवे जावाणं, संसारस्थाण होति वणाइ । संसार पमुक्काणं, णयिहु वणादओ केइ ॥ जीवस्स णच्छि वणो, णवि गंधो गवि रसो
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy