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________________ ११६ पंधनो अभाव करवानी रुची होय तो भेद विज्ञानसम्यक् ज्ञाननी प्राप्ति करवी ए सार छे. ४॥ वीर्य क्षायिकबले चपलता योगनी, रोधि चेतन को शुचि अलेशी; भाव शैलेशीमें परम अक्रिय थइ, क्षय करी चार तनु कर्म शेषी ॥ सूर० ॥ ५ , अर्थः-एम श्री सूरस्वामी अनंत चतुष्टयने प्राप्त करी तेरमा गुणस्थाने तीर्थंकर नामकर्मना उदये भव्य जीवोने मा दुःखदायक भव समुद्रमांथी तारनार स्याद्वाद नय युक्त जीवाजीवादि तत्त्वनो उपदेश भापी-पछी प्राप्त करेला क्षायिकवीर्यना पल बडे, करण वीर्य वडे थती चपलता दूर करी मेरू पर्वतनी पेठे निःप्रकंप-शैलेशी करण करी, मन 'वचन अने कायानी क्रियानो त्याग करी पोताना मात्म द्रव्यने पवित्र-पुद्गल परिणामना. संश्लेष रहित-भलेशी की परम अक्रिय भवस्था धारण करी, पाकी रहेला घेदनीय, नाम, गोत्र, भने प्रायु ऐ चार प्रघातीया कर्मनो सर्वथा नाश करी "पूर्व प्रयोगादसंगत्वादन्पच्छेदात्तथा गति परिणामांच” पूर्व प्रयोगना हेतुए अंसंग होवाथी P
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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