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तर्कणायाम् "बाह्य क्रिया आवस्यकादि रूपा बाहियांगोस्ति च पुनः अंतरंग क्रिया च स्वसमय परसमय परिज्ञानरूपा ज्ञानक्रिया अपरो द्रव्यानुयोगोस्ति” अंतरंगक्रियाशुद्धिनी प्राप्ति माटेज बाह्यक्रियाशुद्धि आदरणीय, प्रशसनीय छे. संवर हेतु छे, पण अंतरंगक्रियाशद्धिनी अपेक्षा वगरनी बाह्य क्रियाशुद्धि ते बंध हेतु छ.-" शुद्धात्म अनुभव विना बंध हेतु शुभ चाल ॥ आतम परिणामे रम्या, एहज आस्रव पाल ।” माटे बाह्यक्रियाशुद्धिमां प्रवृत्त थतां अतंरंगक्रियाशुद्धिथी चूक नहि अने अंतरंग क्रियाशुद्धिनी कारणरूप बाह्यक्रियाशुद्धिनी उपेक्षा करवी नहि माटे क्रियाशुद्धि तथा ज्ञानशुद्धि ए बनेनुं जिनाज्ञा प्रमाणे, पालन करतो स्याद्वादमा कुशल एवो ज्ञानी शुद्ध निरामय निर्वाणपदने प्राप्त थाय छे. यद्यक्तः-वसंततिलका " स्यादवाद कौशल सुनिश्चल संयमाभ्यां, यो भाव यत्य हरदः 'स्वामिहोपयुक्तः । ज्ञान क्रिया नय परस्पर