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________________ आतम गुण अकषायतारे धर्म न जाणे शुद्धरे ॥ चंद्रानन० ॥ ६॥ ___ अर्थ:-सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप शुद्धात्म गुणनो, क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायो वडे घात न करवो, अकषाय भावर्मा, शुद्ध परिणामीक भावमा वर्तवु तेज साचो धर्म छे. कारणक " वत्थु सहावो धम्मों" एवं श्री जिने. श्वरतुं पवित्र वचन छे-तथा ते कषायोज कर्मबंधना हेतु . " जोग निमित्तं गहणं, जोगो मण वयण काय संभूदो; भाव निमित्तो बंधो, भावो रदि राग दोम मोह जुदो" तथा अकषायमा वर्ततो-पोताना ज्ञानादि भाव प्राणोनी रक्षा करनारो ज्ञानी अप्रमादी मुनि पोताना तथा परना द्रव्यभाव प्राणनो हिंमक केम थाय ? अने जे अशुद्ध अध्यवसायमा वत छे ते हिंमा नहि करता छतां पण हिंसक छे. यतः-"अहणतो विहु हिंसो, दुट्ठतणुओ मओ अहिमरोव्व, बाहिंतो नवि हिंसा, शुद्ध तणुओ जहा विजो” माटे अकषागमा वर्तवू तथा श्रहिंसामा वर्तg ए वेनी परमार्थे एकताज छे. अने
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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