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दर्शन ज्ञान चारित्रने मोक्षनो मार्ग कहे छ-"तमा जहित्तु लिंग, सागार अणगारएहि वा गहिए, दसणणाण चरित्ते, अप्पाणं जुज मोरकपहे" अर्थः-ते माटे सागार अने अणगारना लिंगनू ममत्व तजी, पक्षपात तजी, दर्शन ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्गमा प्रास्माने लगाव-जोड. तेमज वली श्री अमृतचंद्राचार्य कहे छे." येत्वेन परिहत्य संवृति पथ, प्रस्थापि तेनात्मना लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां, तत्वावबोध च्युताः । नित्योद्योत मखंड मेक मतुला, लोकं स्वभाव प्रभा, प्रारभार समयस्य सार ममलं, नाद्यापि पश्यन्ति ते ॥" अर्थ:-जे पुरुषो परमार्थ स्वरूप मोक्षमागेने छोडी बाह्य व्यवहारमा पोताना श्रात्माने स्थापी द्रव्य लिंगनी ममता धरे छे, तेनेज मोक्षन कारण माने छे, ते पुरुषो तत्त्वज्ञानथी विमुख छे वली ते पुरुषो नित्यादित, अखंड, एक, अनुपम, अपराजित, अतुल प्रकाशवंत अने पवित्र परमात्म स्वरूपने अथवा जिनेश्वरना पवित्र समय सारने हजु सुधी पण (मनीनो वेष धारण कर्या छतां पण ) जाणता नथी, प्राप्त थता नथी. माटे एकांत याह्य क्रियानो