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रूपवत; जाकी वपुवाससो सुवास और लुके है।जाको दिव्य धुनो सुनि श्रवनको सुख होत जाके तन लच्छन अनेक प्राइ टुके है। तेइ जिनराज जाके कहे विवहार गुन, निहवे निरखि शुद्ध चेतनसों चुके है॥” एवं अत्यंत देदिप्यमान अनुपम औदारिक आपनुं मनोहर रूप
जोतां-निरखता छतां पण विषयातुरताने अवकाश __ मलतो नथी परंतु श्रापनी शांत, दांत, गंभीर अने निश्चल मुद्रानुं दर्शन पामी विषयोथी उपशान्त चित्त थाय छे ॥ ३ ॥ ____कर्म- उदय जिनराजनो; भविजन धर्म
सहाय, ॥ प्रभुजो ॥ नामादिक संभारतां, मिथ्या दोष विलाय ॥ प्रभुजी ।। बा० ॥४॥ '. अर्थ- “सवि जीव करु शासन रसी; इसि भाव दया मन उल्लसी” एहया अत्यंत तीव्र शुभ बाग युक्त, भावद्याना परिणाम बड़े बंधायला तीर्थकर नामकर्मना उदय वड़े हे त्रिलोक - पूज्य ! श्रा पारावार, दुःखनिधान संसार समुद्रमा बूढ़ता भव्य प्राणियोनो उद्धार करवा माटे सर्वे दूषणों