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________________ द्रव्यं तदेवार्थ:, सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिक, " पर्येति उत्पाद विनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः स अस्ति यस्यासौ पर्यायाथिकः ” ॥३॥ दुनय ते सुनय चलाया, एकत्त्व अभेदे ध्यायारे ॥ मन०॥ ते सांव परमार्थ समाया, तसु वर्तन भेद गमायारे ॥ मन० ॥ ४ ॥ अर्थः-सुनयन लक्षण कहे छे. “ स्वार्थ ग्राही इतरांशाप्रतिक्षेपी सुनय इति सुनय लक्षणं" कुनयतुं लक्षण कहे थे. " स्वार्थ ग्राही इतरांशप्रतिक्षेपी दुर्नय इति दुर्नय लक्षणं” अर्थः-स्वाभिष्ट धर्मने गवेषतां वीजा धर्मोनो अपेक्षा नहि राखनार वीजा धर्मोने बोलवनार जे दुर्नयो तेने दूर करी स्वाभिष्ट धर्मथी इतर सर्वे धर्मोनी अपेक्षा राखी स्थात्पदे शोभता सुनय-अनेकांत वादनी प्रवृत्ति करी, ते अनेकांत-स्याद्वादनये घस्तुर्नु संपूर्ण स्वरूप जाणी सर्वे धर्मो वस्तुथी एकत्व तथा
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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