________________
के ते भव भ्रमणनी हवे अवधि प्रावी. उक्तंच__ "अंतो मुहत्त मित्तपि फासि हझ जेहिं
सम्मत्तं, तसि अबढ पुग्गल, परिअट्टो चेव संसारो" ॥ ३॥ ___ ध्येय स्वभावे प्रभु अवधारी; दुांता परिणति वारी रे ॥१०॥ भासन वीर्य एकता कारी; ध्यान सहज संभारी रे ॥ प्र० ॥ श्री० ॥४॥ ___ ध्याता ध्येय समाधि अभेदे; पर परिणति विछेदे रे ॥ प्र०॥ ध्याता साधक भाव उछेदे, ध्येय सिद्धता वेदे रे ॥प्र॥ श्री० ॥ ५॥ . अर्थ:-प्रभुपदने पोतान शुद्ध ध्येय जाणी पोताना हृद्यमां स्थापना करी, दुर्ध्यान रूप परिस्मतिने निवारी, पोताना ज्ञान वीर्यनी संपूर्ण एकता अभेदता करनारूं सहज प्रात्म ध्यान संभारे; तथी पर परिणतिनो समूल विच्छेद थाय, त्यारे ध्याता ध्येय समाधिमां तल्लीन थाय भने ध्येयं पदनी सिद्धि प्राप्तिने वेदे भोगवे. त्यारे ध्यातामांधी