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२६५ श्रागम श्रर्थनी धारणा, थिर राखो भवि जीव रे । ज्ञान ते आतम धर्म छ, मोह तिमिर हर दीव रे | श्रत अमृतरस पीव रे, साधन एह अतीव रे, संवर ठाण
सदीव रे ||४||
जेम रे ।
धरि प्रेम रे ॥
थाये
पूरच सचित कर्म नी, निर्जरा तिम तम संवर सेवज्यो, साधि धर्म चिन्तवजो मनि एम रे, कर्म लहै हिव केम रे, मुझ पद निर्मल केम रे ॥५॥ पंचम थांनक आश्रयो, धर्म रुची जीव जेह रे । तेहनी करवी रक्षणा, बाधइ धर्म सनेह रे ॥ निम करसण जल नेह रे, घरमावष्टंभ देह रे, तो लहस्यो निज ध्रुव गेह रे ||६|| छट्ट चौविह संघनै, सीखावौ आचार रे । क्रिया करता रे गुण वधै, सधै क्षमादि प्रकार रे । दोष विकार रे, थायै ध्यान विसतार रे आलय शुद्ध
विहार रे ॥७॥
गुणवंत रोगी ग्लान नौ, वैयावच्च करौ अनुकंपा सवि दीन नी, उत्तम वा विनय तरंग रे, शासन राज
रंग रे ।
प्रसंग रे ।
भक्ति (ग?) उमंग रे, सहज
सुभाव उत्तंग रे ॥८॥
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साधर्मिक जन सर्व में, कहवी थाय कसाय रे तजि सवि दोष अनुष्ठान नो, क्षमण कर्या सम थाय रे ।