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________________ १८४ परभावथी अव्याप्त छो तथा नित्य शाश्वत स्वाधीन अने एकांतिक सहज सुख पिंड शुद्धात्म द्रव्यनी अनुभूतिनो निरंतर प्रास्वाद लेनारा तथा मांज विलासी थइ पौद्गलीक विभूतीनुं कापणुं भोक्तापणुं तथा रमणपणुं वमननी पेठे सर्वथा प्रकारे तजी दीधुः कारणके शुद्धात्म अनुभवरूप अमृतपानमां मग्न पुरुष, पौद्गलीक विषय कषायरूप हालाहल विष पीवाने केम इच्छे ? हे प्रभु ! " अजडत्वात्मिका चितिशक्तिः, अनाकारोपयोगमयी दृशिशक्तिः; साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः, अना कुलत्व लक्षणा सुखशक्तिः, स्वरूप निर्वर्तन सामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः, अखण्डित प्रताप स्वातंत्र्य शालिवलक्षणा प्रभुत्वशक्तिः, क्रमाक्रमवृत्ति वृत्तलक्षणोत्पादं व्यय ध्रुवत्वशक्तिः” तथा कर्तृत्वशक्ति, भोक्तृत्वशक्ति, परिणामशक्ति, स्वधर्म ग्राहकत्वशक्ति, स्वधर्म व्यापकत्वशक्ति, तत्त्वशक्ति, एकत्वशक्ति, अनेकत्वशक्ति, कारणशक्ति, संप्रदानशक्ति, अपादानशक्ति, अधिकरणशक्ति, संबंधशक्ति, ए श्रादि अनंतशक्ति आपमा, समवाय संबंधे रहेली छे ते शक्तिमोर्नु
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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