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सवि विणाशी” आत्म परिणाममां कषायनो प्रवेश थवा दीधो नहि एम कलुषता परिणतिनो नाश कर्यो. ॥२॥ वारि परभावनी कर्तृता मूलथी, आत्म परिणाम कर्तत्व धारी । श्रेणी आरोहतां वेद हास्यादिनी, संगमी चेतना प्रभु निवारी ॥ .
सूर०॥३॥ . अर्थः-प्रात्म स्वरूपना अज्ञान वडे जीव, परभाषनो कर्ता बने छ अर्थात् अमुक पदार्थ में में सुवणे करयो, अमुकने में कुवर्ण कर्यो, अमुकने में मनोज्ञ रमवालो कर्यो, अमुकने में अमनोज रसवालो कर्यो, अमुकने में सुगंधी कर्यो; अमुकने में दुगंधी कर्यो, अमुकने मे मनोज्ञ स्पर्शवालो तथा अमुकने में अमनोज्ञ स्पर्शवालो कर्यो, तथा में सुंदर मसुंदर शन्दादिक कर्या पण रूप रस गंध स्पर्शादि जे; पुद्गल द्रव्यनो परिणाम तने आस्मा कदापी काले करीशके नहि छतां पर द्रव्यना परिणामने अज्ञान बडे पातांनी क्रिया मानी ले छे. तथा अमुक जीवने में सुखी को अमुकने में दुःखी कय, ५. परजीवना कर्मफलने पोतानी क्रिया मानी ले के मन
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