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________________ १२४ शुद्ध परमात्मपदना सेवन थकी अत्यंत उत्कृष्ट सहज अनुपचारित अव्याबाध श्रास्मीक परमानंदनी प्राप्ति थाय.॥८॥ ॥संपूर्ण ॥ अथ दशम श्री विशालजिन स्तवनम् ॥ ॥ प्राणी वाणी जिन तणी ॥ ए देशी॥ देव विशाल जिणंदनी, तमे ध्यावो तत्त्व समाधि रे चिदानंद रस अनुभवी, सहज अकृत निरूपाधि रे ॥ १ ॥ स० ॥ अरिहंत पद वदीये गुणवंत रे ॥ गुणवंत अनंत महंत स्तवो भवतारणो भगवंत रे।ए आंकणी। अर्थः-साधु, प्राचार्य, गणधरो विगेरेमा प्रधान शिरोमणि अनंत दषण रहित तथा अनंत प्रात्मीय गुणवडे देदिप्यमान महाविदेहमा विचरता श्री विशाल स्वामीए पोताना आत्म तत्त्वने एवर्भूत नये सिद्ध-प्रगट करी जे शुद्धात्म तत्त्व जन्य समाधि-निवृत्ति प्राप्त करी छे अद्वीतिय अनुपम समाधिने हे भव्यात्माश्रो ! तमे एकाग्र चित्ते
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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