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________________ १२३ माच्यो, कारणके आलोक परलोकना विषयसुखनी आकांक्षा रहित अरिहंतादि पंच परमेष्टी तथा पागम, साधर्मीक उपर पक्षपात विना गुणीपणा माटे जे राग ते प्रशस्तराग जाणवो, ते जोके पुण्यवंधनो हेतु छ तथापि छता अान्मगुणने स्थिर थवानो तथा नवागुण प्रगट करवानो हेतु छे. यद्युक्तं " नाणाइसु गुणसु, अरिहंताइसु धम्म संवेसु । धम्मोवगरण साहम्मीएसु धम्मच्छं जोय गुण रागो ॥ सो सुपसथ्यो रागो, धम्म संयोग कारणो. गुणदो । पढम कायव्वो सो पत्तगुणे खवइ त सव्वं” ॥७॥ आत्मगुण रुचि थये तत्त्व साधन रसी, तत्त्व निष्पत्ति निर्वाण थावे । देवचंद्र शुद्ध परमात्म सेवन थकी, परम आत्मीक आनंद पावे ॥ सूर० ॥८॥ ___ अर्थः-ज्ञानादि अनंत आत्म गुणोने शुद्ध संपूर्णपणे प्रगट करवानी रुथी थाय तोज ते पुरुष तत्त्व साधनानो रसीउ थइ संपूर्ण भात्मतत्त्वनी सिद्धि-निर्वाण पद पामे. देवचंद्र मुनि कहे के के
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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