SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्रम गुणश्रेणि करे, अपूर्व स्थिरतामा आत्म परिणतिने प्रवर्त्ता, संज्वलन क्रोध मान माघा विगेरेधी आत्म परिणतिने वारी नवमे गुणस्थाने ते कषाय रहित - अकषायपणे समभाषमां वर्तावे सूक्ष्म लोभ शिवाय बाकीना कषायथी श्रात्म परिणतिने वारी दशमे गुणस्थाने अधिक शुद्ध समपरिणामे प्रवर्त्तावे, सर्व कषायनो क्षय करी बाग्मे गुणस्थाने वीतराग यथाख्यात चारिश्रमां वर्त्ते, चार घातीया कर्मनी समूल क्षय करी मेरा गणस्थाने अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अनंत वीर्यपणे भस्म परिणतिने वर्तावे - योग क्रियानी सकल चपलता वारी चौदमा गुणस्थात्रे to योगी अवस्था करी पूर्ण परम निवृति पद, पामे. एम दरेक गुणस्थाने आत्म गुणनी अधिक अधिक शुद्धि करतो संपूर्ण सिद्धावस्थान प्राप्त धाय. एम दाव राखी साध्यने आधारे साध्यं सन्मुख उपादान - आत्म परिणतिनी शुद्धताना हेतुए वर्त्तनुं तेज सं अर्थात् नवा कर्मनुं रोक तथा निर्जरा एटले पूर्व संचित कर्म क्षयं धवानो हेतु के, उक्त 66 जो संवरेण जुत्ता, अप्पट प्रसाधगोहि अपणं । मुनिउण आदि यिदं णाण ጎ '
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy