________________
१०८ सुधीनुं ज्ञानपण अज्ञान कहेवाय छ तपा जे विना दशमा पूर्वतुं ज्ञान तो थतुज नथी, वली जे विना संसार परिभ्रमणनी सीमा प्रावती नथी, जे विना सम्यक्चारित्र-संयमनी प्राप्ति थई शकती नथी, जे विना द्रव्यचारित्र पालनार प्रथम गुणस्थाने वर्ते छे माटे श्री जिनेश्वर, सर्व धर्मनु मूल तथा मोक्षनुं प्रथम पगथीउ कहे छै. यद्युक्तं-श्रा मभयदेव
आचार्येण-" देसण मूलो धम्मो, उवइठो जिणवरेहिं सीसाणं । तं सोउण सकन्नं, दंसण हीणो न वंदिवो ॥ ” लोकालोक प्रकाशक श्री जिनेश्वर देव पोताना शिष्यो प्रत्ये सर्वे धर्मनु मूल सम्यदर्शनने घतावे छे माटे दर्शन हीण पुरुषने वंदना करवी नहि. उक्तंच-"सम्मत्त रयण भठा, जाणंता बहु विहावि सछाई । सुद्धाराहण रहिआ, भमंति तछेव तछेव ॥” सम्यक्दर्शनथी भ्रष्ट पुरुष बहु प्रकारना शास्त्र जाणता छतां पण शुद्ध अाराधना रहित होवाथी संसार चक्र व मां ज्यां स्यां भ्रमण कर्या करे छे कारणके सम्यक्दर्शन विना शुद्ध आराधनानी प्राप्ति होय नहि “शुद्ध क्रिया तो संपजे, पुरगल,