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प्रगट करि जेणे अविरत पणाशी; शुद्ध चारित्रगत वीर्य एकत्वथी, परिणति कलुषता सवि विणाशी ॥ २॥ सू०॥ . अर्थ:-हवे श्री सूर स्वामीए परमपूज्य परमात्म पद जे रीते सिद्ध कयु, ते साधना क्रम सहित बखाणे छे.
प्रथम तो, जेना उदय बडे श्रात्मा शुद्ध देवने भदेव, अदेवने शुद्ध देव, सुगुरुने कुगुरु, कुगुरुने सुगुरु, धर्मने अधर्म, अधर्मने धर्म, जीवने अजीव, अजीवने जीव, मोक्षने भमोक्ष, प्रमोक्षने मोक्ष मानेछे, जीवादि तत्त्वमा विपरित श्रद्धान करे छे तथा उत्कृष्ट सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध करे छे एवी मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति तथा मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्तमोहनीयनो नाश करी चिंतामणि रस्न समान अत्यंत दुर्लभ शुद्ध निर्मल सम्यक्दर्शन संप्राप्त कर्यु के जे इंद्रत्व, चक्रि. स्व, चिंतामणि तथाकल्पवृक्षथी पण अधिक दुष्प्राप्य छे. उक्तंच- " इंदत्तं चक्कित्त, सुरमणि कप्पद्रुमस्स कोडीणं। लाभो सुलहो दुलहो,दसणो तीच्यनाहस्स ॥" तथा जे विना नवपूर्व