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________________ १६८ राग करवो ते प्रशस्त राग, धर्म संयोगर्नु तथा गुण प्रगट थवानुं कारण छे. ॥ ८ ॥ जगतारक प्रभु वांदियेरे, महाविदेह मझार॥ वस्तु धर्म स्याद्वादतारे, सुणि करिये निरधार रे ॥ चंद्रानन०॥९॥ अर्थः-संसार समुद्रमांधी उद्धारवा माटे समर्थ, महाविदेहमां विचरता श्री चंद्रानन प्रभुनुं निर्मल भावे वंदन करिए. सूत्रमा “वंदननुं फल श्रवण" एम प्रगट वचन छे, माटे भगवंतने वंदन करतां अनंत धर्मात्मक वस्तुनु स्वरूप स्याद्वादनये सांभलवानो लाभ मले, ते सांभली वस्तु स्वरूपनो निर्धार करी शुद्ध धर्ममां प्रवृत्त थईए. ॥६॥ तुज करुणा सह ऊपरे रे, सरखी छे महाराय ॥ पण अविराधक जीवनेरे, कारण सफलु थायरे ॥ चंद्रानन० ॥ १० ॥ __ अर्थ:-हे चंद्रानन प्रभु ! भाप राग रूपी समुद्र ने उलंघो गया छो, वीतराग भूमिमां विराजमान छो तेथी आप तो शत्रुमां तेमज मित्रमां, सेवकमां तेमज असेवकमां, निंदकमा तेमज स्तुतिकारमा
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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