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परमानदना अनुभवमां निमग्नपणे वर्ते छे. तेमज श्रमारो आत्म द्रव्य पण कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नये (शुद्ध संग्रह नये) श्रापना सहश सत्त वंत छे. "जारिस सिद्ध सहावो तारिस
भावो हु सव्व जीवाण" तथापि अनादिथी __ कनकोपल न्याये अशुद्ध होवाथी शुद्ध परिणतिनी
श्रद्धा (प्रतीती), भासन (विज्ञान), रमण-आचरण स्थिरताना वियोगथी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र रूप अधर्म परिणमे छे. अर्थात अात्माथी परवस्तु जे पुद्गल द्रव्यथी बनेला विलक्षण धर्मवंत शरीरमां, प्रात्मपणानी श्रद्धा करे ले. तेनेज प्रास्म रूप जाणे छे तेथी ते पौद्गलीक भा
वस पोताना श्रास्म परिणामने स्थित करे छे-तल्लीन , करे छे एटले पुद्गल द्रव्यमा इष्टानिष्ट कल्पना करी । अनिष्टने दूर करवामां अने इष्टने प्राप्त करवामा
तथा स्थिर राखवामा पोतानी प्रास्म परिणतिने निरंतर रोकी राखे छे ॥२॥ , वस्तु स्वभाव स्वजाति तेहनो, मूल अभाव न थाय । पर विभाव अनुगत परिणतिथी,