________________
कर्मे ते अवरायरे स्वामी ॥ वि० ॥३॥
अर्थः-द्रव्य, अस्तित्व नास्तित्व स्वभावयंत होवाथी अन्य द्रव्यनो परिणाम तेमां कदापि काले प्रवेश करी शके नहीं अने अस्तिपणे रहेला जे अनंत अन्वय गुणो समांथी कोइनो पण कोई पण काले अभाव थाय नहीं कारण के द्रव्य मात्र द्रव्यार्थिक नये नित्य छे भने “तदभावाव्ययं नित्यम” एम नित्यनी व्याख्या श्री तत्त्वार्थ सूत्रमा प्रतिपादन करेल छे तथा वली "अणोणं पावसंता दिता ओगास मण मणस्स । मेलताविय णिच्चं, सग सग भावं ण विजहति” ए न्याय अनुसारे श्रास्मामा रहेला ज्ञान दर्शन चारित्रादिनो समूल अभाव धवानो बिलकुल असंभव छे तथा वली पंचास्ति द्रव्य मात्र उर्धता तथा तिर्यगप्रचयवंत होवाथी पण तेमज सिद्ध थाय छे. परंतु अनादि अज्ञान वशे आत्म परिणतिने परकर्तृत्व, परभोक्तृत्व, परग्राहकत्व, परव्यापकत्व, पररमणता, पराधाराधेयता श्रादि परानुयायी पणे प्रबर्ताव