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________________ १७२ चारित्ररूप अात्मस्वभावमां वास कराववावाली छ, प्रास्मगुणनी सुवासमां संतुष्ट करनार छे. ॥२॥ त्रिकरण योग प्रशंसना, गुणस्तवना रंग॥ वंदन पूजन भावना, निज पावना अंग ॥ चंद्र० ॥३॥ __ अर्थ:-मन वचन अने काया ए त्रियोगनी शुद्धिए (कषायादि प्रशस्त परिणाम रहित ) देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवंतनो यशवाद बोलवो, तेमना ज्ञानादिक पवित्र गुणनी स्तवना करवी, गुणानुराग करवो, वंदन पूजन विगेरे करवू. तेमना ज्ञानादि शुद्धभाव अनुगत भाषणो श्रास्म परिणाम करवो, ते सर्व प्रापणा अात्माने ज्ञानावरणादि पापथी मुक्त, पवित्र करवानां तथा शुद्धास्मपद प्राप्तिनां अंग छे ।३। 'परमातमपद कामना, काम नाशन तेह ॥ सत्ता धर्म प्रकाशना, करवा गुण गेह ॥ चंद्र० ॥ ४ ॥ अर्थ:-केवलज्ञान, केवलदर्शनादि, अनंत गुणपिंड आपणा शुद्धात्मपदनी कामना, ते साधवानी रुचि, ते पुद्गलादि अन्य द्रव्यनी कामना तृष्णाने
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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