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शन्दादिक विषयना राग वशे मोह पल्लीपतिए पाथ. रेली अतिशय विस्तीर्ण अने दृढ कर्मजालमा भावी फसे छे, पोताना सहज स्वतंत्र अव्यायाध श्रास्म भोगने गुमावी बेते छे, पराधीन दीन थाय छे, पो. ताना शुद्ध ज्ञानादिक प्राणना जोखममा प्रावी पडे छे, कषायाग्निमां (दग्धमान) पच्यमान थाय छे,
बलता रहे छे, एहवा पर परिणतिना रागरूप बं.. धनने छेवा माटे चंद्रबाहु जिनेश्वरनी सेवना ती
दणधारा समान छे, तेथी मुक्त करवा अत्यंत सामर्थ्यवंत छे ॥ १॥
पुद्गल भाव आशंसना, उद्घासन केतु ॥ सम्यकदर्शन वासना, भासन चरण समेत ॥ चंद्र० ॥ २॥
अर्थः-अनादिकालथी कर्म जालमा फसेलो पराधीन थएलो आत्मभोगना ज्ञान तथा प्रास्वादननो वियोगी पुद्गलना रूप रस गंध स्पर्शादि विषयभोगमा मग्न थएलो संसारीजीव निरंतर पुद्गल विषयोनी आशंसना- तृष्णाने वश बर्ते के. ते तृष्णाने छेवाने चंद्रबाहु प्रभुनी सेवा केतु समान छे तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक