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________________ २६ विना कदापि काले मोक्षनी प्राप्ति यह शके नहि. मधु छे के "विरआ सावझ्झाउं, कषाय हीणा महव्वय धरावी । सम्मदिठी विहणा, कयावि मुख्खं न पावंति” तथा “ नपगम भंग पमाणेहि, जो अप्पा सायचार्य भावेण । मुणइ मोख्ख सख्खं समादछ सो ने"॥८॥ कार्य रुची कर्ता थेयेरे कारक सवि पलटायरे ॥ द०॥ आतम गते आतम रमेरे, निज घर मंगल थायरे ॥ द०॥६॥ ...अर्थ-ज्यांमुधी जीव मिथ्यात गुणस्थाने पर्ते छे- सम्यक्दर्शननी प्राप्ति थइ नथी, त्यांसुधी मनास्म वस्तुमा प्रारमवुद्धि-अहंपणुं माने छे पर्यात् पुद्गल स्कंधोथी बनेल चैतन्यशून्य जे शरीर तेमां लोलीभूतपणे परिणमि पोतानु श्रास्म अंग माने के तथा ते शरीरने जे प्रशस्त, हितकारी पदार्थो-स्त्री धन कुटुंबादिने पोतानां हितकारी माने छे, लेऊमां रागरसे रीझे छे, संसार भ्रमण परिपाटीने वधारे छे (जो अपसत्थो रागो, वढ्ढई संसार भ्रमण परिवाडी । विसयाइसु सयणा
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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