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________________ २६३ पद्मनाभ प्रभु देशनारे, साधन साधक सिद्ध । . गौण' मुख्यता वचन में से ज्ञान ते सयल समृद्धो रे । प्रथम ३ वस्तु अनंत स्वभाव छेरे, अन्त कथक तसुनाम ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहेवे अर्पित कामो रे ॥ प्रथम ४ शेष : अनर्पित धर्म ने रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध | उभय रहित भासन हुवे रे, प्रगटे केवल बोधो रे । प्रथम । ५ छती परिणति गुण वर्तना रे, भासन भोग आनंद | सम काले प्रभु ताहरेरे, रम्य रमण गुण वृदो रे । प्रथम | ६ निज भावे सीय अस्तिता रे, परनास्ति स्वभाव | श्रस्तिपणे ते नास्तिता रे, सोयते उभय स्वभावो रे । प्रथम ॥७ अस्तित्वभावते आपणो रे, रुचि वैराग्य समेत । प्रभु सन्मुख वंदन करीरे, मागीस श्रतम हेतो रे । प्रथम । म । = करुणानिधि गुरुं तारीओ रे, दाखो शुद्ध स्वभाव | मुज भातम सुख स्वादनो रे, बीजो कवण उपावो रे । प्रथम काल अनादिनो विसर्यो रे, माहरो श्रातमानंद | ' प्रभु विरण मुज कुण सीखवेरे, त्रिभुवन करुणा कंदोरे | १० | मुजने तुज शासन तणी रे, छै मोटो उमेद | निर्मल आतम संपदा रे, थाशे प्रगट अभेदोरे । प्रथम । ११ दीपचंद गुरु सेवतां रे, पाम्यो देव अभंग | देवचंद ने नित होजोरे, जिन शासन दृढ़ रंगो रे । प्रथम । १२ 7 i ( सूचना - इस स्वन को ३ सेवीं गाथा चौवीसी के अंतगत कुंथुनाथ स्तवन के सदृश है ।
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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