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________________ २६२ आराधो पंचास भहिय, इगलय शुभ परिणति । काल अनंते रीत एह, गुण गेह मनोहर । । परमात्तम सेवन, नमन, परमारथ सुखकर ॥३॥ दर्शन ज्ञान चारित्र वीर्य, तप गुण श्राराधन । अक्षय अव्यय शुद्ध सिद्धि, समता पद साधन ।। कल्याणक कल्याण कंद, सुरतरु जे भक्ते । पाराधै तमु आत्म भाव, थायै सवि व्यक्ते ॥४॥ तीथै तीर्थकर साधु संघ, आराधन निर्मन । जनम महोच्छव प्रमुख भक्ति, करता हुवै शिवफल ॥ देवचन्द्र जिनराय पाय, प्रणमो अति रीझे। . परम महोदय ऋद्धि सिद्धि, मन वंछित सीमै ॥५॥ ॥ इति मौन एकादशी नमस्कार ॥ (नित्य-मणि-जैन लायब्रेरी, कलकत्ता से प्राप्त ) : ६ श्री पद्मनाभ जिन स्तनन श्री वीरप्रभु उपगार थी रे, श्री श्रेणिक गुणधाम ।। क्षायिक श्रद्धा गुण वशे रे, नीपायो जिननामो रे ।। प्रथम. जिनेश्वर, भावि भरत मझारो रे । । मुझने ' तारशे रे, भवी आशा अवधारो रे ॥ प्रथम० ॥१॥ वस्तु स्वरूप प्रकाशता रे, ज्ञान चरण गुंण खाण । - वांदु प्रभुता ओलखी रे, तेहिन मुनि सुविहाणोरे ॥ प्रथम ॥२॥
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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