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मन० ॥ साध्य सिद्धि अविछेदरे ।। भवि.।४। ' । अथे:-हे परमेश्वर ! अापना प्रवलंबनथी पापना अनुकरणवडे ध्याता पुरुष पोताना शुद्ध सिद्ध समान परमात्मपदथी अभेद थाय अर्थात् पोते परमात्मा थाय. एम ध्येय जे परमात्मपद तेनी समाप्ति कहेता संपूर्ण प्राप्ति थाय, निष्कंटकपणे अविनश्वर साध्यनी सिद्धि थाय. ॥४॥ जिन गुण राग परागथीरे॥मन० ॥ वासित मुझ परिणामरे॥ भवि० ।।तजशे दुष्ट विभावतारे ॥ मन० ॥ सरशे आतम कामरे भवि.१५॥ , अर्थ:-जेम मलयागिर चंदनना संसर्गवडे निंबादिक सुगंधमय थई जाय छे. तेम हे भगवंत ! थापना दिव्य स्तुति पात्र पवित्र गुणना रागरुप सुगंधीवडे जो माह हृदय संश्लेषित थाय तो अनेक प्रकारनां असह्य दुःख अापनार परकतत्व, पर मोक्तत्व, परग्राहकस्व, परव्यापकस्व विगेरे विभावनो नाश थाय अने परमात्मपद् पामवानो माहरो मनोर्थ पूर्ण थाय. ॥५॥
जिन भक्तिरत चित्तनेरे ॥ मन०॥ वेधकरस गुण प्रेमरे ॥ भवि० ।। सेवक जिनपद पाम