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अत्यंत बल्लभ एवा ज्ञानानंद स्वदेशी शेठने मापे प्रधान पदे स्थाप्यो छे, ते ज्ञान प्रधान सर्व प्रजाथी संपूर्ण रीते माहितगार छे, जेना हृदयमां सर्वे प्रजाना भाव निरंतर प्रकाशित रहे छे वली ते ज्ञानानंद प्रधान निरंतर श्राप समीप हाजर रहे छे समयमात्र पण दूरवर्ती नहि थतां सर्वे प्रजानु सदैव निरिक्षण तथा संरक्षण करे छे तथा कोइने पण त्रास नहि आपतांअत्यन्त हर्षपूर्वकन्यायानुसार व वे छे, लेशमात्र पण न्यायातिक्रम थवा देतो नथी, एवो अद्भुत चातुर्य तथा विवेकवंत छे. ॥ २ ॥
सम्यकदर्शन मित्त, थिर, निधारे अविसंवादताजी । अव्याबधि समाधि, कोश अनश्वरे रे निज आनंदताजी ॥ हुं० ॥ ३ ॥ देश असंख्य प्रदेश, निज निज रोते रे गुण संपत्ति भोजी । चारित्र दुर्ग अभंग, आतम शक्ते हो परजय संचर्याजी ॥ १० ॥४॥ __ अर्थ:-अभिग्रहादिक पांच मिथ्यात्वने समूल नाश करी जेणे पोतानुं अंग निर्मल करेलु छे तथा जे, सम. संवेग, निवेद, प्रास्तिक्यता अने