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परमात्म पद का आधार है।
आज का क्षुद्र मानव अपने स्वार्थ के खातिर बदर, हिरण, कुत्त, मछली आदि को मारना अपना कर्तव्य मानने लगा है। तब जैन दर्शन छहों जीवनिकायों की रक्षा करने का उपदेश फरमाता है।
- जैन दर्शन में तीर्थ कर भगवान जब तक जीवित रहते हैं तव तक अरिहंत रूप में अपने पूर्वकृत पुण्य कर्म फलों को भोगते हैं । भव्यात्माओं को धर्म को आराधना में सहायक होते हैं। ऐसे उन परमोपकारी प्रभु के नाम गुणों के स्मरण से मिथ्या दोषों का नाश होता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि अनादि अनत ऐसा कोई ईश्वर नहीं होता । जैन दर्शन मान्य ईश्वर का स्वरूप सादि अनंत भाव वाला होता है साथ ही ईश्वर को सहायक मात्र माना जाता है का रूप से नहीं। इसीलिये तो श्रीमान ने गाया है कि--
कर्म उदय जिनराज नो, भविजन धर्म सहाय । नामादिक संभारतां,
मिथ्या दोष विलाय ॥ चौथे सुबाहु भगवान के स्तवन मे--भगवान के केवल ज्ञान का स्वरूप, अपनी स्थिति और भावना, साथ ही साधन विधान बताते हुए सीधा रास्ता बताया है जैसे कि--
जिनवर वचन अमृत भादरिये,