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रमण करता है तभी आत्मा में म गल हो जाता है।
अगर यही बात है तो ईश्वर को क्यों मानना चाहिये ? इसके जवाब में श्रीमान फरमाते हैं--
त्राण शरण आधार छो रे, प्रभुजी भव्य --सहाय । दयाल । देवच'द्र पद नोपजे रे,
जिन पद कज सुपसाय रे । दयाल । त्राण-शरण और आधार रूप भगवान को मानकर भव्यात्मा देवच द्र पद पैदा करते हैं। उपकारी के उपकार को याद करना कृतज्ञता मानी जाती है । जनदर्शन भगवान को निमित्त रूप से मानने की प्रेरणा करता है । इसीलिये मंदिर और तीर्थों में भगवान की स्थापना की जाती है।
तीसरे श्रीबाहु तीर्थकर भगवान के स्तवन में जैन दर्शन की परम अहिंसा का स्वरूप श्रीमान ने इस प्रकार गाया है--
द्रव्य थकी छकाय ने, न हणे जेह लगार प्रभुजी ।
भाव दया परिणाम नो, - एहिज के आधार प्रभुजी ॥ जैन दर्शन पृथ्वी १ पानी २ आग ३ वायु ४ वनस्पती ५ और चलते फिरते-नस ६ इन छह जीव निकायों को मनसा वाचा कर्मा न माग्ने का उपदेश देता है। जब कि दूसरों की अहिसा केवल मानव प्राणी तक ही सीमित है। किसी भी जीव को किसी भी तरह से न मारना--भाव दया है। भाव दया ही