SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ __गोपवा, रोपवा केइ मत कंदरे धर्मनी देशना पालटे, सत्य भाखे नहि मंदरे ॥” प्राचार्य कहे छे "किं भणिमो किं करिमो, ताणह आसाण चिट्ठट्ठाणं । जो दंसिऊण लिंग, खिींचंति णरयम्मि मुद्धजणं ॥” तो हे भगवंत ! नवा जीवो जिन दर्शित शुद्धात्म धर्मने शीरीते पामी शके १ ॥ ३॥ तत्त्वागम जाणग तजीरे, बहु जन सम्मत जेह । मूढ हठी जन आदर्योरे, सुगुरु क- हावे तेहरे ॥ चंद्रानन०॥४॥ . अर्थ:-वली हे प्रभु ! आपना भाखेला प्रागमनुं यथार्थ रहस्य जाणनारने तो भा पंचम कालमां मूढ पुरुषो तजी देखे-उबेखे छे, अने तत्त्व ज्ञानथी विमुख, मूर्खना टोलाने संमत तथा मूढ अनेकदाग्रही पुरुषोए आदरेला सन्मानेला एहवा कुगुरुमो, सुगुरु नाम धरावे के, पण पस्थरनी नाव जेवा प्रगटपणे जिनशासनना वैरीरूप कुगुरुनो भवसमुद्रमांधी केम उद्धारी शके १ मोक्षमार्गे शी रीते दोरी शके १ उक्तंचः-जिम जिम वहुश्रुत बहुजन समत,
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy