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१८१ अर्थः-एम दरेक सर्वे प्रदेशना गुणाविभागो एकत्र एक बीजाने सहकारीपणे सदा परिणमे, चली द्रव्य क्षेत्र कालनी प्रवृत्ति ते द्रव्यना परमभावने अनुसारे वर्ते छे. जेम जीव द्रव्यनो भाव चैतन्यता छे माटे चैतन्य गुण पर्यायनो एक पिंड ते जीव द्रव्य छे, अने चैतन्य गुणने रहेवान श्र. संख्यात प्रदेशमय स्थानक ते जीव द्रव्यन क्षेत्र के भने चैतन्य गुण पर्यापनी प्रवृत्ति ते जीव द्रव्यनो काल छे ययुक्तं-" गुण समुदाओ दव्वं, खित्तं
ओगाह वट्टणा कालो ॥ गुण पज्जाय पवात्त, भावो नियवत्थु धम्मो सो॥” दान लाभ भोगादि लब्धीनो ते वीर्य गुणनी सहाय विना वर्ती शके नहीं पण हे भगवंत ! श्रापर्नु वीर्य क्षायिकपणे होवाथी गुण वृत्तिना समूहने अकंपपणे सहकारी थई शके छे तेथी आप हमेशां प्रबंध तथा परमोत्कृष्ट अवस्थामा वर्तो छो, कारण के चलइ स फंदई" ॥ ४ ॥ ॥ पर्याय अनंता हो, के जे एक कार्यपणे ।। वरते तेहने हो, के जिनवर गुण पभणे ॥