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प्रदेशोनुं एक समुदायीपणे काय प्रवर्तन नथी, भिन्न भिन्न प्रदेशे भिन्न कार्य होई शके छे.जेम धर्मास्तिकाय कोई प्रदेश वडे अमुक पुद्गलने चलनसहायी थाय छे अने तेथी बीजा प्रदेशे वीजा पुद्गलने चलनसहायी थाय छे एम भिन्न प्रदेशे भिन्न वृत्ति. होवाने लीधे जड द्रव्यमां कापणुं ठरी शकतुं नथी.
पण हे भगवंत ! जीव द्रव्यनो सहज स्वभाव एदो छे के तेना ज्ञान दर्शनादि सर्वे गुणोना अविभाग पर्याय दरेक प्रदेशे छे, ते सर्वे प्रदेशना गुगााविभाग एक समुदाये अावीर्भावे थई कार्य करे अर्थात् एक कार्ये परिणमवामां सर्वे प्रदेशना गुणाविभाग सामर्थ्य पणे परिणमे, कोइ पण प्रदेशना खुणाविभाग ते कार्यमा जोडाया शिवाय रहे नहीं, एम जीव द्रव्यना सर्व प्रदेश मली एक समुदायि पणे एक कार्ये परिणमे छे. ॥ ३ ॥
शंकर सहकारी हो, के सह ने गुण वरते ॥ द्रव्यादिक परिणति हो, के भाव अनुसरते ॥ दानादिक लब्धि हो, के न हुवे सहाय विना ॥ सहकार अकंपे हो, के गुणनी वृति घना ॥४॥