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________________ ११ शूर जगदोशनी तीक्षण अति शूरता, तेणे चिरकाल नो मोह जीत्यो 1 अनादि काल के मोद को जीतना ही ज्ञानियों की दृष्टि में सभी वीरता होती है । entrating दशवें श्री विशालप्रभुजी के स्तवन में प्रभु ने जैन दर्शन सम्मत कत्तत्व भाव का श्रीमान ने सुंदर निरूपण किया हैभव श्रटवी श्रति गहन की पारग प्रभुजी सत्यवाह रे । शुद्ध मार्ग देशक पणे, योग क्षेमंकर-नाह रे ॥ अरि० । }} संसार रूप मीमाटी से शुद्ध मार्ग को बताते हुए भगवान भव्यात्मानों के योगों में कल्याण करनेवाले सार्थवाह स्वामी हैं । जैन दर्शन को भगवान उपदेश कत्तृदेव मानने में कोई आपत्ति नहीं । ग्यारहवें श्री वर भगवान के स्तवन में श्रीमान ने अपनी दयनीय दशा का बड़े मार्मिक शब्दों में चित्रण किया हैआश्रव बंध विभाव करू रुचि आपणी । भूल्यो मिथ्या वास दोष द्यं परभणी | a पार कर्मों को कर के पाप संस्कारों के बंधन से अपना स्वरूप भूलकर उल्टे काम मैं करता हॅू। उल्टे कामों का उ
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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